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इस दुनिया में ना जाने कितने ही रिश्ते अपने आपमें बन जाते है जो किसी भी शोहरत और दिखावे के मोहताज नही होते है… फिर चाहे वो रिश्ता खून का हो, प्यार का हो, दोस्ती का हो या एह्सान का हो…कल मदर्स डे पर सबने अपनी माताओं को आपको जन्म देने के लिये शुक्रियां अदा किया होगा कि उन्होने आपको पढा- लिखा कर इतना सक्षम बनाया कि आज आप अपने फ़ैसले खुद से ले सकते है…लेकिन इन सबमे सबसे बड़ा हमारा रिश्ता हमारे कर्तव्य का होता हैं… क्या हमलोग उस रिश्ते की डोर मे मोती पिरो पाते है ? कल जब सारी माताये अपने बच्चो के साथ ख़ुशियां मना रही थी फ़िर हमारी धरती माता इतनी जुदा सी क्योँ थी…क्या वो अपने बच्चो को प्यार नही करती…? परन्तु यहाँ पर तो शायद उसके बच्चे ही उससे भेदभाव पूर्ण व्यवहार करते है…तभी तो उस धरा को अपने आराम के लिये, कभी आपने सुख के लिये उजाड़ देते है सबसे शर्मनाक तो उसकी मिट्टी को धर्म के नाम पर रक्तरंजित करने से भी नही चूकते हैं. क्या हमारा कर्तव्य नही बनता कि उस प्रकृति के प्रति अपना कर्तव्य निभाया जाएँ। धर्म जाति, तरक्की, सुख-सुविधा के लिए तो हम उसका दोहन करने से पीछे नही हटते है फ़िर उसका सम्मान करने के लिये इतना क्यो सोंचते हैं. क्या हुआ अगर हमारे सुख मे थोड़ा सा बिघ्न पड़ भी जायेँ और क्या हुआ अगर थोड़ी सी गर्मी भी सहन करनी पड़ जायेँ। जब प्रकृति अपने सभी बच्चों को बिना पक्षपात के पालन-पोषण करती है फ़िर हमारे द्वारा इस धरा का तिरस्कार क्यो होता है…इस संसार में मरते समय हर इन्सान इस पृथ्वी से दफ़नाने के लिये और अन्तिम संस्कार के लिए दो गज़ ज़मीन प्राप्त करता हैँ तब तो जमीन ये कह कर मना नही करती कि इस इंसान के हाथ रक्तरंजित थे मै इसको दफ़नाने के लिये अपना आँचल क्यो मैला करु…या ये व्यक्ति देश सेवा मे लगा रहा मै इसकों ज्यादा प्रेम करती हूँ और इसको दो ग़ज़ से ज्यादा धरती दूंगी। ऐसा कभी नही हुआ वो तो सबके लिये हमेशा एक सी रहती है फ़िर हम अपनी धरती माता के लिये एक से क्यो नही रह्ते…?
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