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मैं तो तेरे आँगन की हू चिराई…

meri awaz
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कभी-२ हमारा मन उस काम को करने की अनुमति नही देता जो इस दुनिया की नज़रों में गलत होता है… चाहे वो काम कितना भी पवित्र क्यों ना हो या दूसरे मायनो में किसी की ज़िन्दगी सवांरने का एक सफल प्रयास ही क्यों ना हो… लेकिन कहते है ना ये दुनियां की रीत ऐसी होती है जो इंसान को जीना सिखा देती है या उसे जीते जी मार डालती है… ऐसी ही ये कविता इस मानसिकता को प्रदर्शित करती है-
जहाँ एक बेटी अपनी माँ को कह रही है की कम उम्र में उसकी शादी दुनियां के बहकावे में आकर मत करे और दूसरी ओर उसकी माँ जो समाज से खौफ खाकर दिन-रात अपनी बेटी की शादी की चिंता में खोयी रहती है… आज भी ऐसी बातें भारत जैसे महान देश में देखने को मिलती है… जहाँ ना जाने आज भी कितनी ही बेटियां सिर्फ समाज के डर और बहकावे में आकर शादी के बंधन में बाँध दी जाती है…
ओ री माँई… कैसी ये दुविधा आयी…
मैं तो तेरे आँगन की हू चिराई…
क्यों तू ना समझे मेरे मन की कसक…
क्यों है आज तुझे उलझन करने की मेरा लगन…
क्या मैं पल रही हू तुझ पर बनकर बोझ…
या अब ना रहा तुझे मुझसे कोई अब रोझ…
बन्ध जाउंगी बनकर घंटी दूजे खूंटे से…
सोच क्या रह जायेंगे मेरे सपने टूटे से…
सहकर दुनियां की बोझिल अनगिनत ये रीत…
पहले ही कई बार मर चुकी मैं बनकर कीट…
इस दुनियां में बनकर आई हू तेरी मैं दुलारी…
फिर क्यों आज बन गयी मैं तेरी ही आँखों की लचारी…
क्यों तू रोये क्यों तू तरसे देखने को मुझको एक दुल्हन…
क्यों तू नही खुश होती अपने पैरों में मुझे चलता देख कर…
तू रात-२ भर जागे जोड़ने को मेरे करम…
पर तू क्यों ना समझे ये सब तो हैं दुनियां के कितने भरम…
गलती कहू ना मैं तेरी ये माँई…
डरती हैं तू भी कही
मुझे खींच ना ले जाएं दुनियां की ये अँधेरी खाई…
रह ना जाये अरमान ये तेरे…
जल रही हू मैं अब अपने टूटे सपनो को सेज़ें…
क्यों कर दी तूने अपनी लाड़ली से ऐसी रुश्वाई…
कैसी ये दुविधा आई…
ओ री माँई…मैं तो थी तेरे आँगन की चिराई …

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