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हर तरफ आग की तरह बरसती गर्मी से सभी परेशान है जो अपना कहर हर उस इंसान को बनाती ही है जो उसकी सत्ता को स्वीकार नही करते है. जो कमजोर होते है आसानी से उसका कोप सहन नही कर पाने के कारण जीवन से हाथ धो लेते है. कुछ इसी तरह उस किसान के साथ भी होता है जो दिन रात मेहनत करता है सुलगती गर्मी में. इस कविता में उस दम तोड़ते किसान की हालत बयां करने की कोशिश की गयी है जो बारिश न होने के कारण हीन अवस्था में आ गया है और उसकी भूमि सूख रही है…
तड़प रहा है वो अंगारा बनकर !
चीखती धूप में बह जाता है पसीना,
खून की धार बनकर !
कब आओगे बदरा,बह कर अमृत की तरह
डोल जाये हरियाली, सुहागन बन कर !
प्यासी आँखें तरसे रस्ता,
लालिमा की बूँद कब बन बहेगी
नीली चादर की तरह !
वो पेड़ भी बचा नही, जहाँ आत्मा झूल जाये,
लगा कर फाँसी का फंदा !
खेत तरस रहे है, दो बूँद पानी को तेरे !
घर पड़ा है सूना, बेबस रोती उसकी पत्नी,
घर के टूटे दीये से, करने को उजियारा !
हाँफ रहा है उसका बच्चा,
भूखे पेट अनाज को तरसता !
कहाँ से लाये रोटी चादर,
ढँक दे तन को, बना कर प्रहरा !
बचा ले बिकने से खुद को,
गिरते मनोबल की लज़्ज़ा !
डूब रहा है वो झूठे क़र्ज़ में,
मैली होती इज़्ज़त की तरह !
बेबस है बेचारा किसान,
पाने को खुद दो मुट्ठी आनाज !
कब बरसोगे बदरा, गीले पतझड़ की तरह !
सूखे मिटटी के ढेर बन जाये,
मुस्कुराते हरियाली से पेड़ !
तोड़ दो आकर घमंड, इस सुलगते सूरज का !
बस जाओ हर नज़र में,
सुख से भरते जैसे आवास !
प्यासी चिड़ियाँ,दम तोड़ते जानवर
चमक रहे है चील कौवे, रोशनी सी आँख में !
बंज़र होती भूमि कह रही मत मारो मुझको,
बनाकर आग में तड़पते, रेगिस्तान की छाया !
अब तो बरसो बदरा, अमृत के उजियारे की तरह !
मार रहा है वो हर पल अपनी अंतरात्मा को,
चीखते गिरते जमीन में लाल आंसूओं की धार सा !
उसका बह जाता पसीना, खून की धार बनकर
कब आओगे बदरा बहकर, अमृत की तरह !
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