meri awaz
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चढ़ते नंगे पैरो से
इबादत की सीढ़ियों में
सँभालते थे मुझे,
मेरे नन्हे हाथो को
अपने हाथो से थामकर,
उस ईश्वर से रूबरू
कराते थे मुझे,
जब मैं चोरी से
आँख खोल कर देखती,
वो प्यार से निहारते थे मुझे,
संस्कार अभिव्यक्ति के
प्रथम पाठ में
फेल होने पर,
प्यार से समझा
रहे होते थे मुझे,
वो गुड़ियाँ के खेल में
मम्मी के डांटने पर,
हाथो के पालने में झुलाकर
चुप कराते थे मुझे,
ज़िन्दगी के कश्मकस से
गुजरते हुए,
उन तकलीफों
को सहते हुए,
सारे सुख उपलब्ध
करा जाते हैं मुझे,
पीछे हटते
लड़खड़ाते मेरे सपनो को,
वो दुआं की ताबीज़ से
हौसला दे जाते हैं मुझे,
नम्र विनम्र भाव
अविभाव की सीख देकर
उगते सूरज सी
चमक दे जाते है मुझे,
उलझनों से शिकस्त खाती
इस ज़िन्दगी में
वो सच्चे दोस्त की तरह
समझाते है मुझे,
उनकी गुड़ियाँ
उनकी दुलारी हूँ मैं,
वो आज भी
अपनी राजकुमारी
कह कर बुलाते है मुझे !
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