meri awaz
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कुछ पंक्तियाँ गृह कलह की जंजीरो को तोड़कर स्त्री के अपने अधिकार के लिए लड़ने और खुद के लिए सोचने पर…
दो लब्ज़ो में ढूंढ रही हूँ अपनी वो दास्तां।
बैठी अकेले सोच रही हूँ पुराने दिन बार-२,
वो खिलखिलाता बचपन तो वो प्यारी सी गुड़ियाँ.
वो सपनो के जहाज तो वो चिड़ियाँ सी उड़ने की तमन्ना.
शायद अभी भी ज़िंदा हूँ मैं इसीलिए ज़िन्दगी हैं.
तोड़ बंदिशे उन रूमानी जंजीरों की,
निकल पड़ी हूँ खुद करने न्याय सम्मान का.
निकल गया हैं दम अब झापड़ और
उस भयानक मार-पीट का.
नीली पड़ती पीठ भी रोक न पायेगी रास्ता उम्मीदों का.
सांस ले रही हूँ मैं पाने अधिकार प्यार का.
शायद अभी भी जिन्दा हूँ मैं इसीलिए ज़िन्दगी हैं.
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