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भारतीय दशा

meri awaz
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कुछ संवेदनाएं इतनी खास होती हैं कि उनको चाह कर भी अपने से दूर नही किया जा सकता. जिस तरह से हमारी पृथ्वी प्रकृति से, प्रकृति इंसान से और इंसान इंसानियत से सह सम्बन्ध रखता हैं उसी प्रकार हमारे द्वावित्व भी इनके अनुरूप सुनिश्चित हो जाते हैं. जिस तरह से हमारी सरकार देश के विकास के लिए तत्पर रहती हैं उसी के अनुरूप विकास की माला एक सूत्र में गुथती जाती हैं. चाहे वो पिछली सरकार हो या इस समय देश की जनता की सरकार हो, सभी का लक्ष्य विकास को गति देकर भारत को विश्व गुरु की पदवी से फिर से अलंकृत करना हैं. कभी ग्रामीण विकास पर जोर तो कभी महिला शिक्षा पर एक सी राय बना कर नीतिया बनायीं जाती हैं. अगर आज साक्षरता पर बात की जाये तो देश की साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत हैं जो आज़ादी के बाद 1951 में 18.3, 1961 में 28.3,1971 में 34.4, 1981 में 43.6 तथा 1991 और 2001 में क्रमशः 52.2 और 64.8 प्रतिशत थी. ये साक्षरता ग्राफ वृद्धि को दर्शाता हैं जो सरकारी नीतिया और कार्यक्रम की सफलता को प्रदर्शित तो करता ही हैं साथ ही साथ जनभागीदारी भी सुनिश्चित करता हैं. लेकिन क्या सिर्फ उच्च शिक्षा प्राप्त करने से या साक्षर बन कर ही विकास को बढ़ाया जा सकता हैं? सिर्फ बुनियादी शिक्षा की नींव आर्थिक उत्पादन और रोजगार के विकल्प के लिए ही होने चाहिए ? आज हमारे देश में दो तिहाई आबादी गॉवो में रहती हैं और कृषि कार्य में लगी हैं. इतना ही नही यहां व्यापक पैमाने में वैज्ञानिक तरीको से खेती होती हैं फिर भी हमारे कृषि प्रधान देश में कृषि का हिस्सा सकल घरेलू उत्पाद में सिर्फ 14 प्रतिशत ही क्यों रह गया? क्यों बुनियादी शिक्षा सन 2002 में मौलिक अधिकार का दर्ज़ा पाने के बाद भी गावों में अभी भी अविकसित अवस्था में पड़ी हैं?अगर महिला शिक्षा की बात की जाये तो पं जवाहर लाल नेहरू जी का भी सही मानना था की अगर एक पुरुष शिक्षित होता हैं तो उसका व्यक्तिगत विकास होता हैं परन्तु अगर एक महिला शिक्षित होती हैं तो उसका पूरा परिवार शिक्षित होता हैं. एक शिक्षित महिला ही आर्थिक उत्पादन में वृद्धि तथा प्रजनन दर में कमी ला सकती हैं. कुछ सर्वे में ये सिद्ध भी हुआ हैं शिक्षित महिला तथा प्रजनन दर में ऋणात्मक सम्बन्ध होता हैं. अब अगर अपने देश की विश्व गुरु बनकर विश्व को मार्ग दिखाने की बात की जाये तो उसके लिए अभी और इंतज़ार करना पड़ सकता हैं क्योकि देश को 1991 में सामाजिक अर्थव्यवस्था से निकल कर मिश्रित अर्थव्यवस्था में परिणित होने में दो बातें उभर कर सामने आती हैं, पहली तो ये कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था का आकार निरंतर बढ़ता जा रहा हैं विश्व में पी. पी. पी. की दर में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का ख़िताब हासिल कर चुकी हैं, तो दूसरी ये कि हमारी अर्थव्यवस्था के ढांचे में कुछ दोष भी हैं जो गरीब को और गरीब तथा अमीर को और अमीर बना रही हैं. आज विश्व के शक्तिशाली देशो में गिने जाने के बाद भी हमारे देश की पुरानी नीतियां, रूढ़िवादी सोच और कही ना कही जन जागरूकता का आभाव इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराए जाने चाहिए. आज विश्व में हमारा देश बाल वधु की राजधानी, विश्व में गरीब जनसँख्या का ज्यादा प्रतिशत, ज्यादा बाल और मातृत्व मृत्यु दर तथा अधिक शिक्षित बेरोजगारो की समस्या आदि के लिए भी ख्याति पा रहा हैं. अगर जल्दी ही इस दिशा में सही कदम नही उठाये गए तो विश्व गुरु का सपना तो दूर भारत आज जनजागरूकता तथा जनभागीदारी के आभाव में अपनी ऐतिहासिक पहचान के लिए भी मोहताज़ हो जाएगा.

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