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सर्दियों के मौसम में धूप सेंकते हुए एहसास हुआ कि बाहर कुछ शोर सा लगा हुआ हैं। पहले तो इस ओर ध्यान को भटकने का मौका ही नही दिया कि ये तो रोज़-2 का तमाशा हैं। लेकिन शोर को बढ़ते हुए देखकर मन में शोर का कारण जानने का इरादा मुझे आखिर मेन गेट तक ले ही गया।कुछ शोर सुनाई दिया जो दरवाजे के आगे सब्जियों को सजाये कुछ सब्जीवालो के उच्च स्वर के नाद थे, जो कुछ रूपए किलो के भाव से आलू टमाटर और भी तरह-२ की सब्जियों के भाव बता कर सौदा कर रहे थे। पास में ही उनके बच्चे बैठ कर सब्जियों को इस तरह से सजा कर रख रहे थे जैसे वो ही उनके खिलौने हो या लड़कियों के लिए वो दुल्हन वाली गुड़ियाँ जिसकी अभी शादी करनी हो और वो ससुराल भेजने के लिए तैयार की जा रही हो। कल्पना की हद को किसी भी सीमा में बांध कर नही रखा जा सकता, शायद इस बात को यहाँ गुड़ियाँ और खिलौनों से तुलना करना या कहना सार्थक होगा। पास ही छोटे बच्चे भी खेल रहे थे किसी के दरवाजे में हाथो से झूलकर या फिर गन्दी मिट्टी को उड़ा-२ कर कपड़ो में पोंछ कर ख़ुशी से खिलखिला रहे थे। इस शोर में ही शायद उनलोगो ने अपनी दुनिया बसा ली थी। कितनी सामान्य सी बात थी खास क्या था इस नज़ारे में आखिर ! वही रोज़ का शोरगुल और वही उनकी दोपहर 12 बजे से रात 10 बजे तक की दुनिया। जैसे उनलोगो ने अपनी ज़िन्दगी काट ली, शायद वैसे ही कल को उनके बच्चे काटेंगे। आखिर कहावत हैं डॉक्टर का बच्चा डॉक्टर और इंजीनियर का बच्चा इंजीनियर बनता हैं आदि-2… तो फिर सब्जीवाले का बच्चा सब्जीवाला बन जायेगा। कुछ 20-30 प्रतिशत मामले छोड़ दिए जाये लेकिन अंततः परिणाम वही होता हैं जो अभी तक देखे गए हैं,जो एक आम बात हैं। हाँ यदि थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो ज्यादा से ज्यादा वो मैकेनिक या किसी कारखाने में मज़दूर बन जाता हैं। रुकिए ये कहानी से किसी प्रकार का भटकाव नही हैं ये कुछ सामाजिक तथ्य हैं जिनसे परिचित होना जरुरी हैं। मेरे मन में भी विचार आये कि मैं क्यों यहां पर खड़े होकर सामाजिक परिदृश्य में अपने भावो से रंग भर रही हूँ क्या फ़र्क़ पड़ेगा इन सब बातों से,क्योकि जो जैसा हैं वैसा ही रहेगा।अभी बदलाव में काफी समय हैं कुछ भी क्षणिक नही हैं सदियाँ लगेगी हवा को, पत्थरो को काटकर नयी उपजाऊ मिट्टी को बनाने में। ये सब बातें मन में गढ़ते हुए एकटक आँखों की पुतलिया किसी कार वाले पर रुक गयी। कोई आदमी सब्जी के लिए कार से उतर कर सब्जी लेने की कोशिश कर रहा था…शायद उसको कोशिश कहना ही सही शब्द हैं यहां पर। क्योकि जो शोर सुनाई दिया और अभी तक जिसकी वजह से मन में सब्जीवालो के लिए एक भाव (चाहे उनसे सहानुभूति या दया जो उपयुक्त हो भाव प्रयोग कर लिया जाये) जाग्रत हुआ उसके जिम्मेदार यही कारवाले भाईसाहब थे। देखने में तो संभ्रात परिवार के पढ़े-लिखे हुए अफसर टाइप के नज़र आ रहे थे। पर शायद ये आँखों का धोखा था मेरी,उनके सब्जीवालो से बहस करने का अंदाज़, सब्जियों के दामो को लड़-झगड़ कर कम कराना सबकी नज़रों में किताबो में प्रयोग करने वाले हरे रंग के हाइलाइटर की तरह चमक रहा था। इस तरह के वीडियो को तो ना जाने हम कितनी बार व्हाट्सऐप में या ऑनलाइन देख चुके हैं जिसमे दिखाया जाता हैं कि अच्छा पैसा कमाने वाले मॉल में जाकर चीज़ो को टैग प्राइस में खरीद लाते हैं चाहे उस चीज़ की कीमत कितनी भी ज्यादा करके क्यों ना बेंची जाये। लेकिन उसी चीज़ को आम दुकान से खरीदने में अपनी शान के ख़िलाफ़ मानते हैं और अगर खरीदते भी हैं तो आधे दामो पर। ये शोरगुल वाला दृश्य मुझे वैसा ही अनुभव करा रहा था। अगर आप सब्जीवाले से दो रूपए बचा लेते हैं उसकी सब्जी खरीद कर तो ऐसा दिखावा करते हैं जैसे आपने एहसान कर दिया उस गरीब पर, लेकिन जब हम कुछ चीज़ो को मॉल से खरीदते हैं तो मॉल वाले दिखावा करते हैं कि उन्होंने एहसान कर दिया आपको ऐसी सुविधा देकर। सोचने वाली बात हैं जो हमारे खाने के लिए अनाज सब्जी उगाता हैं बेचारे उसी के बच्चे दो वक़्त की रोटी के लिए तरसते हैं,लेकिन जो बेचने के लिए इनसे अनाज और सब्जियां खरीदता हैं उनके बच्चे ब्रांड के नाम पर अपने दोस्तों से अमीरी के दिखावे की रेस लगाते हैं। और अंत में वही हुआ कारवाले भाईसाहब ने दो रूपए बचा लिए और उन्होंने इस प्रतिस्पर्धा में फिर से हारे हुए इंसान को हरा दिया था। आजकल दिखावे के बाजार में इतनी उछाल आ गयी हैं जहाँ बड़ी दुकानो से सामान खरीदना स्टेटस की बात हो गयी हैं। चाहे वही सामान छोटा दुकानदार कम दामो में बेच रहा हो लेकिन बड़ी दुकान का वही सामान ऊंचे दामो वाला अच्छा होगा। भले ही वो रद्दी हो। लेकिन छोटी दुकान से सामान खरीदने के लिए दामो को कम कराना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हुए उनपर एहसान जताते हैं। क्या ये विकृत मानसिकता शोषण नही हैं उन छोटे दुकानदारो के साथ ? मन में फिर से विचार आया कही ये मानसिकता विकृत पूँजीवाद का छोटा स्वरुप तो नही जिसको कही ना कही इतिहास और अर्थव्यवस्था की किताबो में देखने को मिल जाता हैं। विश्व इतिहास के कुछ पन्नो को पलटते हुए कुछ बातें अपने आप ही दिमाग में घर कर गयी। जिसमे से कुछ शब्द इस प्रकार दिए हुए थे “उदारवाद, पूँजीवाद, समाजवाद”.सच ही ये शब्द कही ना कही 18वी शताब्दी का ऐतिहासिक परिदृश्य को उकेरते हुए आज की कहानी को भी लिखते हैं। यदि इस कहानी को इन तीनो शब्दों से तुलनात्मक वर्णन किया जाये तो जिस तरह से छोटे दुकानदारो या किसानो का शोषण होता था उसके जीवाणु आज भी इस भारतीय अर्थव्यवस्था में विद्यमान हैं जो शोषित वर्ग के रूप में प्रख्यापित होते हैं। जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर इशारा तो करता ही हैं साथ में समाजवाद के अंश की व्याख्या भी प्रदर्शित करता हैं,जिसमे सरकार उदारवादी अर्थव्यवस्था का चोंगा पहन कर पूँजीवाद के साथ समाजवाद की अर्थव्यवस्था को पोषित करने की भूमिका निभाती हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषता ही ऐसी हैं जहाँ सरकार उदारवादी अर्थव्यवस्था का ढोंग रचकर पूँजीपति वर्ग का उत्थान करती हैं। जिसके फलस्वरूप अंततः समाजवाद का उदय होता हैं (जो गरीब वर्ग का हथियार भी कहलाता हैं) और भारतीय समाज गणतंत्रात्मक संविधान का पालन करते हुए अपने आप ही शोषक (पूँजीपति वर्ग) और शोषित (समाजवादी विचारधारा) तत्व समाहित करता हैं। और ये प्रक्रिया स्वतः ही चलती रहती हैं। जहाँ अमीर और अमीर, गरीब और गरीब होता हैं।
-नेहा वर्मा के द्वारा
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