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आज फिर से अपने फालतू के समय में से काफी समय बाद कुछ लिखने का मौका मिला। इसीलिए नहीं कि आज कुछ काम नहीं था इसीलिए कि आज फिर से उसकी याद आयी। जब लिखने का मौक़ा मिलता तो लब्ज़ नहीं होते और जब लब्ज़ो की भाषा साथ होती हैं तो उस याद का तराना साथ नहीं होता। कितना अजीब होता हैं ना इन यादों की उलझती सी दुनिया का फेर बदल। याद जो कि दो शब्दों में उलझी हुई छोटी सी दुनिया जिसमे किस्से कहानियों का सफर तो होता ही हैं साथ में मुस्कुराने और इबादत में आंसूओं से चित्र बनाने की कला भी माहिर होती हैं। फ़िलहाल इन उलझती हुई छोटी सी दुनिया में वो इंसान याद आया जो रोज़ाना के सफर में बस में अक्सर मिल जाया करता था। उसको इंसान कहना सही होगा या नहीं… पता नहीं। क्योंकि आधी से ज्यादा आबादी तो उनको इंसान मानती ही नहीं होगी। आज फेसबुक में एक वीडियो शेयर करते हुए उसकी फिर से याद आयी। सोशल नेटवर्किंग साइट्स में हम लोगो में से ना जाने कितने होंगे जो इस तरह के वीडियो शेयर करके अफ़सोस तो करते नज़र आएंगे लेकिन जब कुछ करने की बारी आएगी तो इस समाज के डर से सबसे पहले विरोध करेंगे, उनपर हँसेंगे, तिरस्कृत करेंगे, ऑटो या पब्लिक कन्वेंस में ऐसे दिखाएंगे कि वो दुनिया के सबसे घृणित इंसान हो, उनसे डरेंगे जैसे वो हमलोगो को खा जायेंगे या उनके पास बैठने से कपडे मैले हो जायेंगे। बस में सफर करते हुए खिड़की वाली सीट पर बैठकर बाहर का लुफ्त लेते हुए वो मेरे पास आकर खड़ा हो गया और दोनों हाथो से ताली बजाकर आगे बढ़ गया। मैंने उसको देखा और एक मुस्कान पास कर दी। ये हमारी पहली मुलाक़ात नहीं थी। ऐसी ही मुलाक़ाते अक्सर बस से सफर करते हुए हो जाया करती थी। हर दिन की तरह आज भी उसने हाथो से ताली बजाकर लोगो से रूपए मांगने शुरू कर दिए। अजीब था कि वो रूपए सिर्फ आदमियों से ही वसूल करता था औरतो से नहीं। शायद उसको भी पता था कि इस टेक्निकल सदी के सामाजिक विभाग में औरतो और आदमियों में अभी भी तत्कालीन अंतर व्याप्त हैं फिर उसकी क्या मज़ाल जो इस बराबरी में हिस्सेदारी ले। उस दिन कुछ लोगो ने बस कंडक्टर से शिक़ायत भी कि इसने शराब पी रखी हैं और उसको गाली देकर भगाने लगे जबकि उस दिन उसने पूरे होश में मुझे पहचान कर मुझे उन दुआओ के पूरी होने की दुआ दी जो उसको पता भी नहीं कि सच में मन में गड़ी हुई उन दुआओं में मैंने क्या लिख रखा होगा। फिर से एक बार और कितना अजीब हैं ना ये जानते हुए कि उनको अभी भी कानूनी अधिकार मिलने के बाद भी पूरी तरह से शिक्षा का अधिकार नहीं हैं, काम का अधिकार नहीं हैं फिर भी हम हेय नज़र से उनके मजाक का मौक़ा नहीं छोड़ते। कितना अज़ीब हैं ना कि ट्रांसजेंडर का दर्ज़ा मिलने पर भी वो औरत आदमी की श्रेणी वाले इंसान में नहीं आते। कितना अज़ीब है ना कि उनकी सफलता की दो चार कहानियों को छोड़ कर आज भी ज्यादातर, हाथो से ताली बजाकर उन इंसानो की शादियों और त्योहारों में नाचने को मजबूर हैं जो उनको अर्धनारीश्वर का ख़िताब देकर मन्नत तो पूरी करते हैं लेकिन उनको भगवान् मानना तो दूर उनको इंसान भी नहीं समझते।
– नेहा वर्मा
प्रवक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स
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